(PREFACE)
किसी विषय के बारे में बिना कुछ जाने ही बहुत कुछ कह जाना, एक अत्यन्त जटिल कार्य है। मापन एवं मूल्यांकन के बारे में भी बिना उसका कुछ जान प्राप्त किये, प्रारम्भ में ही विद्याथियों को उसका गहन अध्ययन करा देना मात्र एक कल्पना से अधिक और कुछ भी नहीं। प्रारम्भ में तो बस इतना भर कहना ही उचित होगा कि इस विषय का मानव जीवन के प्रत्येक पक्ष में बड़ा महत्व है। वस्तुतः जिस आधुनिक सभ्यता में जीने पर हम गर्व महसूस करते हैं, उसकी आधार शिला यही विषय है। इस विषय के समर्थन में स्वयं रॉस (ROSS) महोदय लिखते है कि, “मापन के सभी यन्त्र यदि इस संसार से लुप्त कर दिये जायें तो आधुनिक सभ्यता बालू की दीवार की तरह भरभराकर गिर जायेगी।” स्षष्ट है, जीवन के विभिन्न पक्षों यथा-आर्थिक, सामाजिक, शैक्षिक, राजनैतिक आदि के अपने-अपने कुछ सत्य होते हैं, जिन्हें मापन एवं मूल्यांकन जैसे विषय एक व्यवस्थित स्वरूप प्रदान करते हैं। यही वह स्थिति होती है जब कोई सत्य, देश, काल एवं घटनाओं की परिधि में प्रतिनिधित्व की सामध्ये ग्रहण कर पाते हैं तथा एक नये इतिहास का निर्माण करते हैं। बाद में, इसी इतिहास की भूमि पर वर्तमान की विवेचना होती है तथा भविष्य की योजनायें खड़ी होती हैं। शिक्षा के क्षेत्र में इस विषय की सार्थकता पर कोई प्रश्न चिन्ह नहीं लगाया जा सकता। विद्यार्थियों का बुद्धि-स्तर, उनकी सामथ्यं, उनकी रुचियों, अभिरुचियों, उनकी विषयगत उपलब्धि, उनकी व्यक्तित्व सम्बन्धी विशेषताओं, उनकी वैयक्तिक विभिन्नताओं तथा सृजनशीलता आदि के बारे में अध्यापक को विशेष जानकारी रखनी ही चाहिये, क्योंकि, इन सभी के अभाव में उसकी शिक्षण-अधिगम प्रक्रिया प्रभावी नहीं बन सकती।
लगभग एक दशक पूर्व यह विषय कुछ विश्वविद्यालयों में ऐच्छिक (optional) विषय के रूप में पढ़ाया जाता था। लेकिन, कालान्तर में विषय के महत्व को स्वीकारते हुए इसे अनिवार्य विषय के रूप में पढ़ाया जाने लगा तथा जिन विश्वविद्यालयों ने अभी तक इस विषय को ऐच्छिक माना, अब वे भी इसे अनिबार्य विषय के रूप में अपनाने को तैयार हो गये हैं। रुहेलखण्ड विश्वविद्यालय इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है।
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