भूमिका
सम्पूर्ण संसार में भारतवर्ष ही एक ऐसा भू-भाग है जहाँ आदिकाल से नारी के प्रति पूज्य भाव एवं आराधना चर्चित है। सम्पूर्ण नारी जाति आस्था तथा शक्ति के प्रतीक के रूप में सर्वथा वन्दनीय है। हमारे आदि ग्रन्थों में कहा गया है कि जहाँ नारी की पूजा होती है देवता वहाँ रमण करते हैं। यदा-कदा भारी प्रताड़ित होती है तो विनाश तथा हाहाकार निश्वित रूप से सम्भव है। किन्तु आज उसी भारत में जहाँ नारी अपनी सशक्तता के वशीभूत होकर विकास की और उन्मुख है, राष्ट्र के वैभव को आगे बढ़ा यी हैतो दूसरी और भारत के यत्र-तत्र क्षेत्रों में उसे भयंकर यातनाओं तथा प्रताड़नाओं का शिकार भी बनना पड़ रहा है। इसे हम आधुनिक सभ्यता का कारण मानेंगे या पश्चिमी सोच का अन्धानुकरण ? यह प्रश्न राष्ट्र, भारतीय समाज एवं विद्यालयों के समक्ष एक चिन्तन का विषय बनकर उभरा है और इस चिन्तनीय अवधारणा ने समाज, विद्यालय तथा शिक्षा के मूल मन्त्र को झिंझोड़कर रख दिया है। दुःख का विषय है कि जिस मातृ शक्ति से मनुष्य का निर्माण होता है वहीं पुरुष उसके रक्त का प्यासा बन बैठा है।
पूर्वकाल में द्रोपदी के चीर या वस्त्र हरण के कारण ही सौ कौरवों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा। राम की सीता का हरण बलशाली किन्तु शिव भक्त रावण द्वारा भी दुष्कार्य माना गया और युद्ध में पराजित होकर सम्पूर्ण वंश के विनाश का कारण बना, इतिहास इसका साक्षी है। जब से ऐसे वातावरण ने नारी के प्रति भेदभाव, असमानता, प्रताड़ना, हिंसा आदि दुर्भावनाओं ने जन्म लिया है, हत्काल ‘तलाक’ कहकर पत्नों को अलग कर देना, नारी-शोषण का उदाहरण है। विद्यालय, समाज तथा राष्ट्र को इसके लिये सोचने हेतु विवश कर दिया है। तत्कालीन केन
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