भूमिका
है। इसी कारण कसा शिवम् सुन्दरम् कीरक अधिि भी है। भरतमुनि कला को जान शिल्प और विद्या से भी मानते हैं। उनके द्वारा बी कराओं और बधी उरकका किया गया है। इस प्रकार चौकाओं की मान्यता विद्याभान है। करण के विविध रूप पथा- चित्रकला, नाटक, नृत्य, संगीत एवं हस्तशिल्प है। करता के महत्व के सन्दर्भ में जब हम चर्चा करते हैं तो हमारा ध्यान अदीत की परछाइयों में कला सन्दर्भ ढूँढने लगा है। भारतीय ग्रन्थों में इसका लेख मिलता है। सरस्वती की वीणा की झंकार से भला कौन मन्त्रमुग्ध नहीं हो जाता, नृत्य का दृश्य किसकी थकान दूर नहीं करता, नृत्य और नाटक की कला भला किसको नहीं भाती ? इसीलिये नृत्य, संगीत एवं चित्रांकन तीनों मिलकर आनन्द की असीम अनुभूति के परिचायक है। कला के अपरिमित महत्त्व के कारण भगवान श्रीकृष्ण की रासलीलाएँ आज भी सम्पूर्ण भारत में लोकप्रिय है। कलात्मक चित्रकारी तथा भव्यता के लिये दक्षिण भारत के रामेश्वरम्, मीनाक्षी, तिरूपति, सोमनाथ, कोणार्क का सूर्य मन्दिर एवं राजस्थान के महल विश्व प्रसिद्ध हैं। अजन्ता एवं एलोरा की कलात्मक आकृतियाँ कला को अनुपम उदाहरण है। कला के महत्त्व को देखते हुए बी. एड. के पाठ्यक्रम में इसे अनिवार्य रूप में राष्ट्रीय अध्यापक शिक्षा परिषद्
द्वारा लागू किया गया है। शिक्षा में कला एवं नाटक पुस्तक को निम्नलिखित आवश्यक प्रकरणों में वर्गीकृत
किया गया है-
(1) शिक्षा में नाटक और कलाओं की समझ।
(2) जनसंचार और वैद्युतीय कलाएँ।
शिक्षा में कला एवं नाटक विषय के पाठ्यक्रम के अनुरूप सभी बिन्दुओं की विश्लेषणात्मक एवं रुचिपूर्ण व्याख्या की है। आशा है अध्ययन सामग्री प्राध्यापकों के अध्यापन तथा छात्राध्या
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