भूमिका
ईश्वर प्रदत्त प्रत्येक शिशु बचपन या बाल्यकाल में इस संसार के अदभुत स्वरूप को बडे आनन्द तथा आश्चर्य के साथ निहारकर अन्तः सुख अनुभव करता है तथा विपरीत या प्रतिकूल वातावरण में भयभीत एवं दुःखी होता है। माता की गोद उसे स्वर्ग समान असीम आनन्द देती है। इन सभी का अनुभव वह मौन अभिव्यक्ति के द्वारा स्वीकार करता है। उसके पास उच्चारण होता है, संकेत होते हैं, भाव होते हैं किन्तु शब्दयुक्त भाषा तथा वाक्य नहीं होते। धीरे-धीरे अपने अभ्यास, माता एवं परिवार के प्रयत्न द्वारा समायोजन तथा अभिव्यक्तिकरण के सूक्ष्म उपाय द्वारा वह विविध प्रकार से सीखने का प्रयास करता है। इस प्रकार शनैः शनैः बालक के शारीरिक एवं रामसिक विकास के साथ सीखने की प्रक्रिया भी आरम्भ हो जाती है।
माता-पिता, परिवार एवं पास-पड़ोस के सहयोग से अपनी क्षमतानुसार प्रयास और त्रुटि द्वारा नवीन ज्ञान सीखकर आयु वृद्धि और विकास के साथ बालक विद्यालय जाने योग्य बन जाता है। शिशु मन्दिर या प्राथमिक विद्यालय में जाकर अपनी अनुभूति एवं जिज्ञासा का अनुभव बालक व्यक्त नहीं करता अपितु अपने भाव-संकेतों को टूटी-फूटी भाषा में अभिव्यक्त करता बालकद्यालय जाने की चाह तथा न जाने की इच्छा उसका अन्तः निर्णय होता है, जो उसका है। विद्यालय तथा अविश्वास को निर्धारित करता है। बस यहीं से एक कुशल शिक्षक द्वारा आत्मविर मनोविज्ञान तथा उसकी सभी दशाओं को समझने का कार्य तथा उत्तरदायित्व प्राप्य बालका है जो किशोरावस्था तक अनवरत् चलता रहता है। इसलिये बाल्यावस्था और वृद्धि हो जाता है (Childhood and Growing Up) विषय को समझना शिक्षक हेतु आवश्यक
एवं महत्त्वपूर्ण है। महत्व पुस्तक को नवीन पाठ्यक्रम
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