निर्देशन एवं परामर्श वस्तुतः आज के सामाजिक एवं शैक्षिक वातावरण में मात्र आधुनिक नवीन विषय नहीं है अपितु अत्यन्त प्राचीन युग से चला आ रहा विषय है। प्राचीन वैदिक काल में जनहित के सभी बिन्दुओं पर सलाह मशवरा तथा निर्देशन (मार्गदर्शन) के औचित्य पर ध्यान दिया जाता था। राजा दशरथ के यहाँ कुल गुरु महर्षि वशिष्ठ तथा भारद्वाज ऋषि के मार्गदर्शन में सभी राज-काज के नीतिगत निर्णय लिये जाते थे तथा उनमें परामर्शदाता के रूप में महर्षियों की भूमिका अग्रणीय होती थी। अट्ठारह पुराणों में सभी नीतिगत बिन्दु भी निर्देशन तथा परामर्श के इर्द-गिर्द घूमते स्पष्ट दिखायी देते हैं। महाभारत काल में प्रत्येक स्थान पर धर्मराज युधिष्ठिर तथा श्रीकृष्ण की भूमिका निर्देशक तथा परामर्शदाता के रूप में रही है। महाभारत के युद्ध को सफलता तथा विजय की ओर ले जाने में श्रीकृष्ण तथा अर्जुन का सम्वाद एक अच्छे निर्देशन तथा परामर्श का अभिनव उदाहरण है। वस्तुतः प्राचीनकाल में शिक्षा, युद्ध कौशल, धर्म की रक्षा, समाज का कल्याण तथा सभी सांसारिक जीवों की रक्षा में निर्देशन एवं परामर्श की प्रकृति तथा दर्शन का एक अद्भुत मिश्रण दिखायी देता है।
आज के वातावरण में जब मनुष्य भौतिकवादी तथा स्वार्थी हो गया है तो लगता है कि इतने व्यापक विषय की परिभाषा क्या सीमित हो गयी है? क्या निर्देशन एवं परामर्श जैसा व्यापक विषय कुछ मायने में शैक्षिक तथा व्यावसायिक क्षेत्र में सिमट कर रह गया है? जबकि वास्तविकता यह है कि यह विषय अत्यन्त व्यापक है। निर्देशन एवं परामर्श की आवश्यकता एवं महत्त्व का स्वरूप सर्वग्राही है। जैसा कि पुस्तक में विविध स्थानों पर स्पष्ट भी किया गया है। निर्देशन तथा परामर्श की आवश्यकता को मनुष्य द्वारा जन्म से मृत्युपर्यन्त अनुभव किया जाता है। संसार के एक छोर से दूसरे छोर तक इसकी उपेक्षा अस्वीकार्य है। शैक्षिक तथा व्यावसायिक विकास के लिये यह एक अद्भुत औषधि रूपा है। एक श्रेष्ठ गुरु अपने शिष्य को उचित निर्देशन तथा परामर्श के द्वारा स्वर्ग का मार्ग प्रशस्त कर श्रेष्ठ उपाधि से विभूषित करा सकता है।
निर्देशन एवं परामर्श कोई दूसरों द्वारा परोसी जाने वाली वस्तु न होकर यह स्वयं द्वारा निर्धारित आत्म नियन्त्रित क्रिया है। व्यक्ति अपनी आत्मा से निर्देशित होता है तथा वह अपनी आत्मा से ही परामर्श प्राप्त करता है कि स्वकल्याण तथा सभी के लिये उचित मार्ग कौन-सा है? जब स्वयं कोई मार्ग नहीं सूझ रहा हो तो अपने गुरु अथवा वरिष्ठजन का परामर्श आवश्यक हो जाता है।
पुस्तक निर्माण में विद्व लेखकों द्वारा प्रयत्न किया गया है कि आवश्यक अध्ययन सामग्री यथास्थान पाठकों को प्राप्त हो जाय। फिर भी पुस्तक में यदि कुछ कमी रह गयी हो तो सुधी पाठक इस ओर हमारा ध्यान अवश्य आकर्षित करेंगे ताकि आगामी संस्करण को आपके अनुसार संशोधित किया जा सके।
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