भूमिका
शिक्षा-दर्शन अन्र्तविषयक आयाम का परिणाम है। शिक्षा-दर्शन के अन्तर्गत ऐसी पाठ्यवस्तु को सम्मिलित किया गया है जिसकी सामान्यतः मानव जाति को आवश्यकता होती है। शिक्षा-दर्शन द्वारा निर्धारित शिक्षा के स्वरूप में सामान्यतः उन गुणों को सम्मिलित किया गया है जिसकी सभी नागरिकों को आवश्यकता होती है; जैसे-स्थान का बोध (place sense), समय का बोध (time sense), नागरिकता का भाव (civics sense), भाषायी कौशल, गणित का बोध व कौशल आदि। प्राथमिक एवं माध्यमिक स्तरों पर ऐसे विषय को अनिवार्य पाठ्यक्रम के रूप में सम्मिलित किया गया है। इन विषयों-भूगोल को स्थान बोध, इतिहास को समय बोध, नागरिकशास्त्र को नागरिकता के भाव एवं व्यवहार, भाषा या मातृभाषा कौशलों को विचारों के अनुभवों की अभिव्यक्ति के लिए, गणित का ज्ञान व कौशल को आय-व्यय के लोखा जोखा के लिए आदि सम्मिलित किया गया है। दर्शन इस प्रकार की शिक्षा के सैद्धान्तिक पक्ष का निर्धारण करता है और शिक्षा इसका व्यवहारिक रूप विकसित करती है।
दर्शन के मूल तत्व चार माने जाते हैं-तत्वमीमांसा, ज्ञानमीमांसा, मूल्यमीमांसा एवं तर्कमीमांसा। इन्हीं से किसी दर्शन के सम्प्रदाय के प्रारूप का बोध होता है। इस पुस्तक में इन तत्वों का वर्णन विस्तार से किया गया है तथा इन तत्वों का शिक्षा में योगदान को भी स्पष्ट किया गया है। इन तत्वों के तन्दर्भ में दर्शनों की तुलना भी की गई है। जिससे दर्शनों की भित्रता का बोध होता है। विद्वानों के दार्शनिक चिन्तन एवं उनका शिक्षा में योगदान का वर्णन भी किया गया है।
सामान्यतः दर्शन के तीन प्रकार्य (Functions) होते हैं-
1. विश्लेषणात्मक प्रकार्य (Analytical functions)
2. बौद्धिक प्रकार्य (Speculative functions)
3. मानकीय प्रकार (Normative Functions)
इस पुस्तक में इन प्रकार्यों का वर्णन दर्शनों के सन्दर्भ में किया गया है। दर्शन में द्वन्द्वात्मक चिन्तन (Dilectical thinking) की अहम् भूमिका मानी जाती है, इसका भी विस्तृत उल्लेख किया गया है तथा इसे एक चार्ट की सहायता से भी स्पष्ट करने का प्रयास किया गया है।
इस पुस्तक के द्वितीय खण्ड में शिक्षा के सामाजिक मूल आधार का वर्णन किया गया है। यह पाठ्यवस्तु भी अन्र्तविषयक आयाम का परिणाम है। दोनों ही विषय एक दूसरे के पूरक हैं। समाज शिक्षा को जन्म देता है तथा शिक्षा एक आदर्श समाज का निर्माण करती है (Education is creature and creator of the society) I
समाजशास्त्र में इसके मूल तत्व-सामाजिक सम्बन्धों, भूमिकाओं, मानकों एवं मूल्यों का अध्ययन किया जाता है। शिक्षा व्यक्ति समाज एवं राष्ट्र के विकास की प्रक्रिया है। विद्यालय समाज का लघु रूप होता है। समाजशास्त्र के प्रमुख घटक-समाज का प्रारूप, सामाजिक परिवर्तन व नियन्त्रण, सामाजिक गतिशीलता तथा सामाजिक स्तरीकरण होते हैं। शिक्षा सामाजिक परिवर्तन एवं नियन्त्रण का सशक्त यन्त्र मानी जाती है। धर्म, संस्कृति जीवन-यापन के लिए दिशा देते हैं। शिक्षा धर्म एवं संस्कृति के अनुरूप समाज का विकास करती है। शिक्षा प्रक्रिया के संचालन के लिए संवैधानिक प्रावधान किये जाते हैं; जैसे सभी के विकास के लिए सार्वभौमिक शिक्षा तथा शिक्षा के समान अवसरों का प्रावधान आदि ।
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