भूमिका
स्वतन्त्रता प्राप्ति के इक्कीस वर्षों के बाद भारत सरकार ने 1968 में राष्ट्रीय शिक्षा नीति की घोषणा की। उसके अठारह वर्षों के बाद देश के युवकों को 21वीं शताब्दी के लिए तैयार करने हेतु 1986 में तत्कालीन युवा प्रधानमंत्री राजीव गाँधी के नेतृत्व वाली भारत सरकार ने शिक्षा में आमूलचूल परिवर्तन करने के लिए नई आशाओं और आकांक्षाओं के साथ राष्ट्रीय शिक्षा नीति घोषित की। 1992 में इसमें कतिपय परिवर्तन किए गए। इस नीति के क्रियान्वयन के लिए अनेक योजनाएँ और कार्यक्रम बनाए गए, लेकिन देश की शिक्षा व्यवस्था में व्यावहारिक रूप में कोई विशेष परिवर्तन नहीं हुआ और शिक्षा उसी ढर्रे पर चलती रही। देशवासियों का यह सपना कि इस शिक्षा नीति के फलस्वरूप देश की शिक्षा प्रणाली में बदलाव आएगा और देश को ऐसे युवक मिलेंगे जो जीवन के हर क्षेत्र में कुशल और प्रभावी नेतृत्व प्रदान करेंगे- पूरा नहीं हुआ। शिक्षा व्यवस्था में बदलाव लाने और वैश्विक एवं राष्ट्रीय परिस्थितियों तथा आवश्यकताओं के परिप्रेक्ष्य में देशवासियों के द्वारा एक नई राष्ट्रीय नीति बनाने की माँग की जाने लगी। चौंतीस वर्षों के लम्बे अन्तराल के बाद भारत सरकार ने नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 2020 की घोषणा की है। इस शिक्षा नीति का विजन भारतीय मूल्यों से विकसित शिक्षा प्रणाली है, जो सभी को उच्चतर गुणवत्तापूर्ण शिक्षा उपलब्ध कराके और भारत को वैश्विक ज्ञान महाशक्ति बनाकर उसको जीवन्त और न्यायसंगत ज्ञान समाज में बदलने के लिए प्रत्यक्ष योगदान करेगी।
यह राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 2020 इक्कीसवीं शताब्दी की पहली शिक्षा नीति है जिसका लक्ष्य हमारे देश के विकास के लिए अनिवार्य आवश्यकताओं को पूरा करना है। यह नीति भारत की परम्परा और सांस्कृतिक मूल्यों के आधार को बरकरार रखते हुए 21वीं सदी की शिक्षा के लिए आकांक्षात्मक लक्ष्यों, जिनमें सामाजिक-आर्थिक रूप से वंचित समूह सम्मिलित हैं, के संयोजन में शिक्षा व्यवस्था, उसके नियमन और गवर्नेस सहित, सभी पक्षों के सुधार और पुनर्गठन का प्रस्ताव रखती है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 2020 प्रत्येक व्यक्ति में निहित रचनात्मक क्षमताओं के विकास पर बल देती है। यह नीति इस सिद्धान्त पर आधारित है कि शिक्षा से न केवल साक्षरता और संख्याज्ञान जैसी ‘बुनियादी क्षमताओं के साथ-साथ उच्चतर स्तर’ का तार्किक और समस्या समाधान सम्बन्धी संज्ञानात्मक क्षमताओं का विकास होना चाहिए बल्कि नैतिक, सामाजिक और भावात्मक स्तर पर व्यक्ति का विकास होना आवश्यक है। वस्तुतः प्राचीन और सनातन और विचार की समृद्ध परम्परा के आलोक में यह नीति तैल
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