भूमिका
यह पुस्तक विभिन्न विश्वविद्यालयों के एम०ए० (शिक्षाशास्त्र) और एम०एड० (शिक्षक शिक्षा) के यथा प्रश्न-पत्रों के नवीनतम पाठ्यक्रमानुसार तैयार की गई, परन्तु कुछ अपनी सोच-समझ के साथ। इन सभी पाठ्यक्रमों में प्रकरणों को बिना किसी तार्किक क्रम में, और वह भी कुछ उलझे हुए रूप में प्रस्तुत किया गया है। हमारा सर्वप्रथम प्रयास सम्पूर्ण विषय-सामग्री को तार्किक क्रम में प्रस्तुत करना रहा है। प्रथम पायदान पर शिक्षा, दर्शन और शिक्षा दर्शन के सम्प्रत्ययों एवं उनसे सम्बन्धित प्रकरणों पर प्रकाश डाला गया है। हम जानते हैं कि संसार में शिक्षा की व्यवस्था सर्वप्रथम भारत में हुई थी और वैदिक काल में यहाँ एक सुदृढ़ शिक्षा प्रणाली चल रही थी जो वैदिक दर्शन पर आधारित थी, अतः दूसरे पायदान पर भारतीय दर्शनों एवं उनके शैक्षिक चिन्तन पर प्रकाश डाला गया है। मध्यकाल में यहाँ विदेशी मुसलमान शासकों का राज्य रहा। उन्होंने यहाँ 500 वर्ष तक राज्य किया। उनके शासनकाल में हमारे देश की शिक्षा पर इस्लाम धर्म-दर्शन का प्रभाव पड़ा, अतः तीसरे पायदान पर इस्लाम धर्म-दर्शन और उसके शैक्षिक चिन्तन पर प्रकाश डाला गया है। मुसलमान शासकों के बाद इस देश पर अंग्रेजों का शासन रहा। उन्होंने यहाँ 200 वर्ष तक राज्य किया। उनके शासन काल में हमारे देश की शिक्षा पर पाश्चात्य दर्शनों एवं उनके शैक्षिक चिन्तन का प्रभाव पड़ा, अतः चौथे पायदान पर पाश्चात्य दर्शन और उनके शैक्षिक चिन्तन पर प्रकाश डाला गया है।
अंग्रेजों के शासनकाल में भारत में जन चेतना जागृत हुई, हमारे देश के चिन्तकों ने भी भारतीय शिक्षा के स्वरूप पर चिन्तन करना शुरू किया, अतः छटे सोपान पर भारतीय चिन्तकों के शैक्षिक चिन्तन पर प्रकाश डाला गया है। और सातवें और अन्तिम सोपान पर शेष असम्बद्ध प्रकरणों पर प्रकाश डाला गया है।
जहाँ तक विषय-सामग्री का प्रश्न है, उसके सम्बन्ध में दो तथ्य स्पष्ट करना आवश्यक है। प्रथम यह है कि किसी भी दर्शन की व्याख्या भिन्न-भिन्न विद्वानों ने भिन्न-भिन्न रूप में की है, हमने उनमें से जिसे उचित समझा उसे प्रस्तुत किया है। द्वितीय यह है कि कुछ विद्वान् भारतीय दर्शनों को पाश्चात्य दर्शनों की पृष्ठभूमि में और पाश्चात्य दर्शनों को भारतीय दर्शनों की पृष्ठ भूमि में देखने-समझने का प्रयत्न करते हैं; जैसे-पाश्चात्य आदर्शवाद के साथ भारतीय आदर्शवाद, पाश्चात्य यथार्थवाद के साथ भारतीय यथार्थवाद और पाश्चात्य प्रकृतिवाद के साथ भारतीय प्रकृतिवाद का अध्ययन, जबकि भारत में आदर्शवाद, यथार्थवाद और प्रकृतिवाद नाम के कोइ दर्शन विकसित ही नहीं हुए हैं। हमारी अपनी दृष्टि से ऐसा करना उचित नहीं है। हाँ, किन्हीं दो दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन अवश्य किया जा सकता है और उच्च शिक्षा स्तर के अध्येताओं से इसकी अपेक्षा भी की जानी चाहिए।
इस पुस्तक में किसी भी अध्याय की विषय-सामग्री को बड़े तार्किक क्रम से प्रस्तुत किया गया है और उसे पाठकों के स्वयं के अनुभवों के आधार पर विकसित किया गया है, लेखक और पाठक के बीच अन्तःक्रिया की स्थिति पैदा की गई है और पाठकों को अपने स्वयं के ज्ञान एवं अनुभवों के आधार पर निर्णय लेने के लिए विवश किया गया है। इस सबसे पाठक विषय-सामग्री को आत्मसात कर सकेंगे, यह विश्वास है।
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