प्रस्तावना
बालक और बालिकायें किसी भी समाज या राष्ट्र की सबसे अमूल्य पूंजी होती है। उसका भविष्य पूरी तरह अपने वृद्धि को प्राप्त हो रहे बालक-बालिकाओं पर ही टिका होता है और यही बात अच्छी तरह यह इशारा करती है कि हमें उनके वृद्धि और विकास हेतु सभी संभव प्रयास करने चाहियें। इस बात की अधिकांश जिम्मेदारी अध्यापकों के कंधों पर ही होती है और इसलिये उन्हें देश के भाग्य निर्माता की पदवी दी जाती है। यह उन्हीं का उत्तरदायित्व है कि वे एक ओर तो वृद्धि को प्राप्त हो रहे इन बालक- बालिकाओं को अपनी-अपनी क्षमताओं के अनुरूप उच्चतम विकास शिखर पर आसीन होने में मदद करें और दूसरी ओर उनमें ऐसी भावनाओं और विचारों का भी संचार करे ताकि वे समाज, राष्ट्र और मानवता की अपेक्षाओं पर भी खरा उतर सकें। काम इतना सरल नहीं जैसा प्रतीत होता है। इसके लिये अध्यापकों में जहां ऐसा करने का दृढ़ निश्चय जरूरी है वहां यह भी आवश्यक है कि उन्हें पूरी तरह से यह ज्ञान हो कि (i) बालक-बालिकाओं के वृद्धि एवं विकास की प्रक्रिया विभिन्न आयु स्तरों पर किस प्रकार आगे बढ़ती है, (ii) बाल्यावस्था तथा किशोरावस्था में उन्हें किस तरह की विकासात्मक आवश्यकताओं तथा समस्याओं से गुजरना पड़ता है, (iii) उनमें वैयक्तिक भेदों की उपस्थिति किस रूप में रहती है तथा (iv) विकासशील या वृद्धि को प्राप्त हो रहे बालक-बालिकाओं को किस तरह उनके अधिगम और विकास में उचित सहायता प्रदान की जा सकती है ताकि एक ओर तो उनकी आयु स्तरों से सम्बन्धित विशेषताओं और आवश्यकताओं की पूर्ति होती रहे और दूसरी ओर उनमें निहित वैयक्तिक भेदों तथा कक्षा और कार्य स्थलों पर चल रहे समूह गतिशास्त्र का भी उचित ध्यान रखा जा सके।
इस सम्बन्ध में एक अध्यापक को एक और बात के लिये भी विशेष रूप से सावधान रहना पड़ता है और वह है विद्यालय में अन्य बालकों के अतिरिक्त वंचित एवं अभावग्रस्त बालक-बालिकाओं की उपस्थिति। इन बालकों के उचित समायोजन तथा विकास हेतु उसे उनकी समस्याओं, आवश्यकताओं तथा प्रकृति से अच्छी तरह परिचित होना पड़ता है तथा कक्षा और विद्यालय के माहौल को इस तरह बनाने की जरूरत होती है कि इन्हें किसी भी प्रकार के भेदभाव, पार्श्वीकरण तथा अन्याय का सामना न करना पड़े।
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